शिवरात्रि का क्या मतलब है? शिवरात्रि के बारे में पूरी जानकारी

शिवरात्रि – Shivaratri in Hindi

महाशिवरात्रि का त्योहार भगवान शिव को समर्पित एक त्योहार है। यह भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। इस दिन को लेकर कई सारी मान्यताएं प्रचलित हैं, लेकिन जो इसमें प्रमुख है उसके अनुसार इसी दिन भगवान शिव की शादी माता पार्वती के साथ हुई थी। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार यह त्योहार फाल्गुन माह के कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है।

यह दिन हमारे लिए शिवजी के कृपा पाने का एक अच्छा अवसर होता है क्योंकि शिवजी को महादेव तथा देवों का देव भी कहा जाता है। इसलिए महाशिवरात्रि के दिन पूजा-अर्चना करने का विशेष महत्व होता है।

शिवरात्रि का क्या मतलब है? (What does Shivaratri mean)

हर वर्ष फाल्गुन माह के कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व बड़े ही धूम-धाम के साथ मनायी जाता है। इस दिन को मनाने से जुड़ी कई सारी मान्यताएं प्रचलित हैं, एक पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के समय वासुकि नाग के मुख से भयंकर विष की ज्वालाएं उठी और यह समुद्र के जल में मिलकर एक भयानक विष बन गया। इस संकट को देखते हुए सभी देव, ऋषि, मुनि आदि भगवान शंकर के पास गये और रक्षा के लिए प्रर्थना करने लगे। उनकी इस विनती को स्वीकार करते हुए भगवान शंकर ने अपनी योग शक्ति से उसे अपने कंठ में धारण कर लिया।

उसी समय समुद्र के जल से चंद्रमा भी प्रकट हुए और देवताओं के आग्रह पर अपने कंठ के विष के शांति के लिए भगवान शिव ने चंद्रमा को अपने ललाट पर धारण किया। भगवान शिव के द्वारा विश्व की रक्षा हेतु विषपान करने की इस घटना के लिए देवताओं ने उस रात चंद्रमा की चांदनी में सभी देवों का रात्रि भर गुणगान किया।

तभी से यह रात्रि शिवरात्रि के नाम से जानी गयी और भगवान शिव द्वारा मानव जाति तथा सृष्टि के कल्याण के लिए किये गये इस त्याग के याद में ही महाशिवरात्रि का यह पर्व मनाया जाता है क्योंकि महाशिवरात्रि का यह पर्व मात्र एक परम्परा नही बल्कि संपूर्ण ब्रम्हांड की परिभाषा है। यह हमारे अज्ञानता से ज्ञान के ओर बढ़ने का प्रतीक है।

शिवरात्रि कैसे मनाते हैं – शिवरात्रि मनाने की रिवाज और परम्परा

इस दिन भगवान शिव के भक्त सुबह उठकर स्नान करने के पश्चात भगवान शिव की स्तुति और भजन करते हैं। इस दिन कई सारे लोग शिव मंदिरों में दर्शन तथा रुद्राअभिषेक, महामृत्यंजय जाप जैसे विशेष पूजा-पाठ के लिए भी जाते हैं। इस दिन मंदिरों में काफी भीड़ रहती है। इसके साथ ही कई शिव भक्त इस दिन गंगा स्नान के लिए भी जाते हैं। इस दिन मंदिर जाने वाले भक्तों द्वारा भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्ति के लिए उन्हें जल तथा भांग, धतूरा और फूल आदि चढ़ाते हैं।

महाशिवरात्रि के पूजन और उपवास के दौरान भक्तों को गेंहू दाल और चावल आदि से दूर रहना चाहिए। इस दिन शिवलिंग का अभिषेक अवश्य करना चाहिए क्योंकि इस दिन शिवलिंग का अभिषेक करने से तमाम तरह की ग्रह समस्याओं से मुक्ति मिलती है और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।

शिवरात्रि मनाने की आधुनिक परम्परा – Modern Tradition of Shivaratri)

महाशिवरात्रि के पर्व को मनाने में पहले से लेकर अबतक कोई विशेष परिवर्तन नही आया है। हालांकि इस दिन अब पहले के अपेक्षा मंदिरों में भगवान शिव के दर्शन के लिए काफी भीड़ होने लगी है। पहले के समय में लोग इस दिन अपने स्थानीय मंदिरों में जाते थे और सरलतापूर्वक भगवान शिव की पूजा अर्चना किया करते थे लेकिन आज के समय में लोग बड़े तथा प्रसिद्ध शिव मंदिरों में जाना चाहते है।

पहले के समय में गावों में लोग खुद बागीचों तथा खेतों में जाकर भांग-धतूरे और बेलपत्र, फूल आदि तोड़कर लाते थे लेकिन अब वर्तमान समय में लोग इन्हें खरीदकर भगवान को अर्पित कर देते हैं। जो इस बात को दिखलाता है कि आज के महाशिवरात्रि के पर्व में अब पहले जैसी बात नही रही। वास्तव में यदि ऐसा ही चलता रहा तो यह पर्व भी बाजारीकरण की प्रथा से नही बच पायेगा और भविष्य में मात्र आडंबर का एक स्वरुप रह जायेगा।

महाशिवरात्रि का महत्व – (Significance of Shivaratri)

महाशिवरात्रि का पर्व हिंदू धर्म के काफी महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक हैं। यह हमारे जीवन में ईश्वरीय शक्ति के महत्व को दिखलाता है और हमें भगवान शिव के द्वारा मानव जाति तथा सृष्टि के कल्याण के लिए विषपान जैसे असीम त्याग को प्रदर्शित करता है। यह दिन हमें इस बात की याद दिलाता है यदि अच्छे कर्म करेंगे और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखेंगे तो ईश्वर भी हमारी रक्षा अवश्य केरेंगे।

इसके साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव हमारे काफी निकट होते हैं और इस दिन पूजा अर्चना तथा रात्रि जागरण करने वालों को उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। महाशिवरात्रि के दिन को उर्वरकता से भी जोड़ा जाता है. यह पर्व ऐसे समय पड़ता है, जब पेड़ फूलों से भर जाते हैं और ठंड के मौसम के बाद धरती सुसुप्तावस्था से जागकर एक बार फिर से उपजाऊ हो जाती है।

महाशिवरात्रि का इतिहास – (History of Shivaratri)

महाशिवरात्रि का इतिहास का प्राचीन है और इसके मनाये के साक्ष्य पांचवीं सदी के भी पूर्व के हैं। कई सारे मध्यकालीम पुराणों जैसे कि स्कंद पुराण, लिंगा पुराण और पद्म पुराण के अनुसार महाशिवरात्रि एक ऐसा त्योहार है, भगवान शिव को विशेष रुप से समर्पित किया गया है। यहीं कारण है कि शैव भक्तों के लिए यह त्योहार इतना महत्व रखता है।

भगवान शिव के अग्नि स्तंभ की कथा

महाशिवरात्रि के दिन से कई सारी पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी मान्यता है कि एक बार ब्रह्माजी व विष्णुजी में विवाद छिड़ गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। जिसमें ब्रह्माजी सृष्टि के रचयिता होने के कारण स्वंय के श्रेष्ठ होने का दावा कर रहे थे तथा भगवान विष्णु पूरी सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में स्वयं को श्रेष्ठ बतला रहे थे। तभी वहां एक विराट लिंग प्रकट हुआ। दोनों देवताओं ने इस बात का निश्चय किया गया कि जो इस लिंग के छोर का पहले पता लगाएगा उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा। अत: दोनों विपरीत दिशा में शिवलिंग की छोर ढूढंने निकले। छोर न मिलने के कारण विष्णुजी लौट आए।

ब्रह्मा जी भी शिवलिंग के उद्गम के स्त्रोत का पता लगाने में सफल नहीं हुए परंतु उन्होंने आकर विष्णुजी से कहा कि वे छोर तक पहुँच गए थे। जिसमें उन्होंने केतकी के फूल को इस बात का साक्षी भी बताया। ब्रह्मा जी के असत्य कहने पर स्वयं वहां शिव जी प्रकट हुए और क्रोधित होकर उन्होंने ब्रह्माजी की एक सिर काट दिया, तथा केतकी के फूल को श्राप दिया कि उनके पूजा में कभी भी केतकी के फूलों का इस्तेमाल नहीं होगा और क्योंकि यह घटना फाल्गुन माह के 14वें दिन हुई थी और इसी दिन भगवान शिव ने खुदको शिवलिंग के रुप में प्रकट किया था। इसलिए इस दिन को महाशिवरात्रि के रुप में मनाया जाता है।

हलाहल विष की कथा

इसी तरह एक दूसरी कथा भगवान शिव के विष पीने से है। जिसके अनुसार, जब अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और असुरों द्वारा मिलकर समुद्र मंथन किया जा रहा था। तब समुद्र से कई सारी चीजें प्रकट हुई। उन्हीं में से एक था हलाहल विष, यह विष इतना तीव्र और घातक था कि सभी देवों और असुरों ने इस विष भरे घड़े को छूने से भी मना कर दिया। जब इस समस्या ने पूरे संसार में त्राहिमाम मचा दिया और विश्व के सभी जीव जंतुओं पर संकट आ गया, तो सभी देव भगवान शिव की शरण में पहुंचे और हलाहल विष से पूरे विश्व के रक्षा की कामना की। तब भगवान शंकर ने इस भयंकर विष को पीकर अपने कंठ में धारण कर लिया। जिससे उनका गला नीला पड़ गया और वह नीलकंठ कहलाये। तब से उसी दिन को महाशिवरात्रि के पर्व के रुप में मनाया जाता है।

शिव-पार्वती के सालगिरह से जुड़ी कथा

इसके साथ ही महाशिवरात्रि को लेकर तीसरी जो सबसे प्रचलित कथा है उसके अनुसार, जब भगवान शिव की पिछली पत्नी सती की मृत्यु हो जाती है, तो भगवान शिव काफी दुखी हो जाते हैं। इसके बाद जब सती का माता पार्वती के रुप में पुर्नजन्म होता है। तो भगवान शिव उनके तरफ देखते तक नही हैं।

इसके पश्चात वह उन्हें मनाने के लिए कामदेव की सहायता लेती है, ताकि भगवान शिव की तपस्या भंग हो सके और इस प्रयास में कामदेव की मृत्यु भी हो जाती है। समय बितने के साथ ही भगवान शिव के हृदय में माता पार्वती के लिए प्रेम उत्पन्न हो जाता है और वह उनसे विवाह करने का निर्णय ले लेते हैं। इस शादी के लिए फाल्गुन माह के अमावस्या का दिन तय किया गया है। इसलिए इस दिन को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है।