रानी लक्ष्मी बाई की कहानी – Rani Laxmi Bai Ki Kahani

इस पोस्ट में रानी लक्ष्मी बाई की कहानी (Rani Laxmi Bai Ki Kahani) पर आधारित विचार को दर्शाया गया है. लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। चलिए लक्ष्मी बाई की कहानी (Rani Laxmi Bai Ki Kahani) के अलग अलग विचार को पढने की कोशिस करते है.

उदहारण 1. रानी लक्ष्मी बाई की कहानी – Rani Laxmi Bai Ki Kahani

झांसी की रानी, लक्ष्मीबाई, अपने महल के सातवें माले पर खड़ी हैं. वो ठंडी पड़ चुकी आंखों के साथ अपनी जलती हुई झांसी को देख रही हैं. सड़कों के आवारा कुत्ते लाशों को चीरकर खाते हुए पागल हो चुके हैं.

एक साथ हज़ारों लोगों की चीखें आसमान को भेदती हुई चली जाती हैं. हर तरफ आग, खून, लूटपाट और मौत के घाट उतार दिए गए झांसी के नागरिक हैं. सिनेमा हॉल के बड़े परदे पर ऐसा दृश्य देखकर किसी की भी रूह कांप सकती है, लेकिन ऐसा वाकई में हुआ था.

1857 की इस क्रांति के इस चरण को झांसी के किले में रानी के साथ ही अपनी आंखों से देखने वाले मराठी लेखक विष्णु भट्ट गोडसे ने अपनी किताब में ये सब लिखा है. लगभग 12 दिन तक चली इस लड़ाई में वो झांसी के किले में रहकर इस रोयें खड़ करने वाली घटना के साक्षी बने. अपने समय की ये इकलौती किताब है जो किसी भारतीय ने लिखी है. बाकी सब ब्यौरे अंग्रेज़ों की तरफ से लिखी गई किताबों और पत्रों में ही मिलते हैं.

गौरतलब है कि झांसी की रानी को अंग्रेज़ों ने 1857 की क्रांति में लड़ने वाला ‘इकलौता मर्द’ बताया था. लेकिन बिठूर की यज्ञशाला में बिन मां की लड़कों के साथ खेलती छबीली को नहीं पता था कि एक दिन दोनों हाथों में तलवार लिए दांतों से लगाम पकड़े वो भारतीय जनमानस में महाभारत के अर्जुन से भी बड़ी योद्धा बन जाएंगी.

बूढ़े गंगाधर राव ने जवान पत्नी को ताले चाबी में बंद रखा था

छबीली बिल्कुल अपरंपरागत तरीके से पली-बढ़ी. अपने पिता के साथ बाहर जाती. घुड़सवारी सीखी, तलवार चलाना सीखा. जब 13-14 साल की हो गईं तब उनके पिता को एहसास हुआ कि छबीली की शादी करना कितना मुश्किल काम है. छबीली की कुंडली जहां भी भेजते वहां कुछ न कुछ दिक्कत मिलती. आखिर में गंगाधर राव से छबीली की कुंडली मिली और उनकी शादी कराई गई. एक विवाह कर चुके गंगाधर को बेटा चाहिए था.

विष्णु भट्ट लिखते हैं कि ‘गंगाधर बाबा’ ने छबीली को नया नाम और पहचान तो दी, लेकिन उसे कड़ी निगरानी में रखा. उसे ताले में कैद कर दिया गया. बचपन में पिता के साथ बाहर घूमने वाली लक्ष्मी पर बुरा असर बड़ा और उनका व्यवहार अजीब हो गया.

झांसी में पहले से ही फैली थीं गंगाधर राव के बारे में अफवाहें

झांसी के आस-पास ये अफवाहें फैली हुई थीं कि गंगाधर राव महीने के 4 दिन स्त्रियों की भांति व्यवहार करते हैं. महिलाओं वाली पोशाक पहनते हैं और उन्हीं के बीच रहते हैं. जैसे कोई स्त्री माहवारी के दिनों में करती है वैसे ही वे चार दिन बाद नहाते और फिर पुरुषों की वेश-भूषा पहनकर दरबार में आते.

एक अंग्रेज़ अधिकारी ने जब ये अफवाहें सुनीं तो उसने राजा से पूछ लिया कि वे ऐसा क्यों करते हैं. गंगाधर राव ने जवाब दिया कि अंग्रेज़ों ने इतनी बड़ी-बड़ी रियासतों को अपने अधीन कर लिया है, झांसी तो फिर भी छोटा है. उन्हें अब स्त्रियों की भांति कमजोरी महसूस होती है. इसलिए वे ऐसा करते हैं.

गंगाधर राव की मृत्यु, दत्तक पुत्र और पेंशन

गंगाधर की मृत्यु के बाद लक्ष्मीबाई के हाथों में झांसी को संभालने की ज़िम्मेदारी तो आई, लेकिन तब तक वो वैसी रानी नहीं थीं जैसा हम उन्हें जानते हैं. उस वक्त वो पूजा-पाठ किया करती थीं. ब्राह्मणों को हर रोज़ दान करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था. उन्होंने अंग्रेज़ों से दरख्वास्त की थी कि उन्हें काशी जाने दिया जाए.

काशी जाकर वो सिर मुंड़वाकर एक विधवा की तरह सामान्य जीवन यापन करेंग, लेकिन अंग्रेज़ों ने ऐसा नहीं करने दिया. किले में रहकर ही लक्ष्मीबाई अब सफ़ेद सिल्क की साड़ी पहनने लगीं, अपने केश खुले रखने लगीं और सुबह विधवाओं की तरह माथे पर राख पोतने लगीं.

अंग्रेज़ों और रानी के बीच टकराव बढ़ता ही गया. पहले दत्तक पुत्र को लेकर, फिर पेंशन को लेकर और आखिर में काशी न जाने देने को लेकर. इसके बाद झांसी में अंग्रेजों द्वारा गो-हत्या को लेकर रानी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया. इन सब चीज़ों ने रानी को आघात पहुंचाया और वो बागी बनने पर मज़बूर हुईं.

जलता हुआ झांसी का किला और 11 दिनों तक बेचैन रानी

विष्णु भट्ट लिखते हैं कि अंग्रेज़ों ने झांसी को घेर लिया था. वो लगातार हमले कर रहे थे. इसी दौरान किसी नागरिक को लालच देकर उन्होंने झांसी के दक्षिण द्वार से प्रवेश करने का जुगाड़ कर लिया था. रानी के बारे में विष्णु लिखते हैं कि वे एक बार भी विचलित नहीं हुईं. महल के चक्कर काटतीं. हर मोर्चे पर खुद निगरानी रखतीं और सबके खाने-पीने का ध्यान भी.

यह सब लगातार 12 दिन चला. इस लड़ाई में उन्होंने पड़ोसी रियासतों को पत्र लिखकर मदद मांगी. गोले-बारूद की वजह से किला क्षतिग्रस्त होता जा रहा था. लोगों को अपनी मौत सामने दिख रही थी. रानी ने न खाना खाया और न एक पल भी सोईं.

चैत महीने में झांसी में हल्दी-कुमकुम का त्यौहार होता था. इस बार इसकी उम्मीद नहीं थी. लेकिन जब रानी को लगा कि झांसी वालों की ये आखिरी चैत हो सकती है तो उन्होंने त्यौहार का वो इंतजाम कराया, जो कभी हुआ नहीं था. इस आयोजन के बारे में लेखक ने लिखा है कि ऐसा आयोजन उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा था.

आखिरी दिनों में उनके ही किसी व्यक्ति ने उनसे धोखा किया और कहा कि अंग्रेज़ों का मनोबल टूट गया है. इतने दिन से झांसी के किले से कोई जवाबी हमला न होने की वजह से वे छोड़कर जाने लगे हैं.

ये सुनकर रानी ने राहत की सांस ली, नहाई, खाना खाया और पहली बार मुस्कराते हुए सोने गईं. 11 दिनों बाद सेना ने अपनी रानी को ऐसे देखा तो सब खुश हुए, लेकिन ये खबर झूठी निकली. अंग्रेज़ वहां से हटे नहीं थे, बल्कि वे दूसरे गुप्त रास्तों से झांसी के महल में प्रवेश कर गए थे.

और फिर रानी ने खुद को किले सहित बम से उड़ाने का फैसला किया, रानी को जब ये पता चला तो उन्हें आघात पहुंचा और वे इस सारी मारकाट की ज़िम्मेवार खुद को मानने लगीं. उस रात पहली बार रानी की आंखों में आंसू आए.

सबको किला छोड़कर जाने के लिए कहते हुए तय किया कि खुद को महल के साथ बम से उड़ा लेंगी. रानी की ये हालत देखकर विष्णु लिखते हैं कि ये बेहद ही कमजोर और भावुक पल था. एक बुज़ुर्ग सैनिक के समझाने से रानी मानीं और 200 लोगों के साथ कालपी चल पड़ीं.

विष्णु भट्ट ने रानी को उनके प्रिय सफ़ेद घोड़े पर बाहर जाते हुए देखा था. इस समय रानी ने अपने दत्तक पुत्र को अपनी पीठ से बांध लिया था. घोड़ों की अच्छी परख के लिए रानी पूरे देश में मशहूर थीं.

तात्या टोपे से मिलने कालपी जाना और माहवारी के समय फूट–फूट कर रोना

एक स्त्री होने के नाते मेरे लिए सबसे ज़्यादा मुश्किल ये जानना रहा कि जो रानी 12 दिन की लड़ाई में एक भी आंसू नहीं बहा रही थी वो माहवारी के चलते फूट-फूट कर रोई. दरअसल, लगातार 24 घंटे घोड़े पर दौड़ती रानी सहेली झलकारी बाई के साथ जब कालपी के पास पहुंचीं तब उन्हें माहवारी आ गई.

झांसी का महल छोड़ते समय रानी ने सिर्फ एक रुपया लिया था. उनके पास कपड़े खरीदने के भी पैसे नहीं थे. इस स्थिति ने उन्हें कमजोर महसूस कराया. सफेद पोशाक पहनने वाली रानी माहवारी के वक्त मर्दों के बीच बैठी थीं. बाद में तात्या टोपे ने उनके लिए कपड़ों का इंतजाम कराया.

यहां से भी अंग्रेजों से लड़ाई हारकर रानी ग्वालियर की तरफ गईं. वहां के राजा को लड़ाई के लिए मनाने की कोशिश की. नहीं मानने पर वहां के राजा को हराया. सेना को इकट्ठा किया. फिर अंग्रेजों से लड़ाई की.

यहीं पर रानी की वो तस्वीर बनी, जिसमें दोनों हाथों से तलवार भांजते दांतों से लगाम पकड़े रानी चंडी का अवतार नजर आईं. इस लड़ाई में रानी की हार हुई और वो वीरगति को प्राप्त हुईं. लेकिन रानी की इच्छानुसार उनका शव अंग्रेजों के हाथ नहीं लगा.

लक्ष्मीबाई पर हजार फिल्में भी बनें तो कम पड़ेंगीं

विष्णु भट्ट ने आंखों देखी इस लड़ाई का जो जिक्र किया है, वो पढ़कर शरीर में रोमांच भर आता है. लक्ष्मीबाई सिर्फ तलवार भांजने वाली योद्धा नहीं थीं, जनता के प्रति उनके मन में असीम स्नेह था. रानी ने जीवन का पहला और आखिरी युद्ध अंग्रेजों के साथ ही लड़ा था. किसी को भी ये उम्मीद नहीं थी कि रानी ऐसी जबर्दस्त फाइट रखेंगी.

विष्णु भट्ट ने लिखा है कि रानी रोज खूब कसरत करती थीं. उनके घोड़ा कुदाने के अभ्यास को देखने जनता पहुंच जाती थी. अगर जनता की बात करें तो विष्णु ये भी लिखते हैं कि किले में बम-गोलों की वर्षा के दौरान भी जनता दीवारों से चिपककर युद्ध देखने का प्रयास करती थी. रानी अपनी जनता के लिए वाकई बहुत श्रद्धा रखती थीं.

उदहारण 2. रानी लक्ष्मी बाई की कहानी – Rani Laxmi Bai Ki Kahani

उत्तर प्रदेश का झांसी एक ऐतिहासिक शहर है। इस शहर से जुड़ा है भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम जिसने महिला वीरता की एक अमर गाथा लिखी।

झांसी में रानी के साथ-साथ आज से लगभग 400 साल से भी अधिक पहले बना किला भी बेहद महत्वपूर्ण है। यहां रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन के अहम वर्ष गुजारे। इस किले के चप्पे चप्पे पर रानी लक्ष्मीबाई की छाप देखी जा सकती है।

झांसी, यहां किला बनने और रानी लक्ष्मीबाई के आगमन के बाद इस किले में हर जगह नजर आने वाली उनकी छाप का सिलसिला कुछ इस तरह हैं। बंगरा पहाड़ी पर 15 एकड़ में बने इस विशाल किले की नींव 1602 में ओरछा नरेश वीरसिंह जूदेव द्वारा रखी गई थी।

ओरछा झांसी से मात्र 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वर्तमान में मध्यप्रदेश का एक कस्बा है। कभी यह सशक्त ओरछा राज्य था और झांसी को इस काल में बलवंतनगर के नाम से जाना जाता था। उस समय बलवंत नगर में रहने वाले किसान खेती, दूध, दही और लकड़ी बेचकर अपना गुजारा करते थे।

रानी लक्ष्मी बाई की कहानी (Rani Laxmi Bai Ki Kahani)

बलवंत नगर की भौगोलिक स्थिति कुछ इस प्रकार की थी कि यह स्थान बुंदेलखंड की सुरक्षा के लिए सैनिक छावनी के लिए उपयुक्त था। इसी कारण ओरछा नरेश वीरसिंह ने इस नगर की बंगरा पहाड़ी पर 1602 में किले का निर्माण शुरू कराया। किले को बनने में 11 साल का समय लगा और यह 1613 में बनकर तैयार हुआ। जब यह किला निर्माणाधीन था तब ओरछा नरेश से मिलने जैतपुर के राजा आए।

जैतपुर के राजा को अपने किले की छत पर ले जाकर हाथ से इशारा करते हुए ओरछा नरेश ने पूछा ‘देखिए आपको कुछ नजर आ रहा है?’ इस पर राजा जैतपुर ने गहराई से देखते हुए कहा कि बलवंत नगर की पहाड़ी पर कुछ ‘झांइ सी’ (धुंधला सा) नजर आ रही है। ओरछा नरेश खुश होते हुए कहा कि आज से बलवंत नगर का नाम ‘झांइसी’ होगा। कालां तर में इसका नाम बदलकर झांसी हो गया।

ओरछा नरेश द्वारा बंगरा पहाडी को काटकर बनाया गया यह किला बेहद मजबूत है इसी कारण इस दुर्ग की चर्चा पूरे संसार में होती है। किले मे 22 बुर्ज और बाहर की ओर उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम दिशा में खाई है, जो दुर्ग की ओर आक्रमणकारियों को सीधे आने से रोकती हैं। ओरछा नरेश के नियंत्रण से निकलकर बाद में झांसी मराठा पेशवाओं के आधीन आई। पेशवाओं ने सूबेदारों की मदद से यहां शासन किया।

ओरछा नरेश से संबंधित गुसाईं यहां के किलेदार बने, जिन्हें बाद में पेशवा के मराठा सूबेदारों ने हटा दिया। गुसाईं और मराठा पेशवाओं ने भी किले मे कई अन्य इमारतों और स्थलों का निर्माण कराया।

मराठा नरेश गंगाधर राव से विवाह के बाद मणिकर्णिका झांसी आकर लक्ष्मीबाई कहलाईं। इन रानी लक्ष्मीबाई की छाप किले में हर जगह देखने को मिलती है। किले के पश्चिमी भाग पर बना वर्तमान मुख्य द्वार वास्तव में मुख्यद्वार नहीं है किले पर अंग्रेजों के अधिकार के बाद किले की दीवार को तोड़कर यह द्वार बनाया गया था।

इसी द्वार के पास रखी है ‘कड़क बिजली तोप’ जो किले की सबसे भारी तोप थी। इस तोप को महारानी के विश्वासपात्र गुलाम गौस खाँ चलाते थे। 1857 में जब अंग्रजों ने झांसी पर हमला किया तो पश्चिमी हिस्से के सामने आने वाली पहाड़ी पर बने कैमासन देवी मंदिर की ओट का सहारा लेकर अंग्रेजी तोपों ने गोले बरसाए।

उस समय तोप इस हिस्से में बने बुर्ज पर रखी थी लेकिन महारानी ने मंदिर होने के कारण उस ओर कड़क बिजली तोप नहीं चलाने का आदेश दिया लेकिन अंग्रेजों द्वारा उसी दिशा से बरसाएं गोलों के कारण बुर्ज टूट गया और तोप नीचे मलबे में आ गिरी।

इस तोप को 1852 में जनरल करेप्पा ने नीचे से मलबे से निकलवाकर किले के वर्तमान मुख्य द्वार के पास लगवाया। इस तोप में गोला फंसा हुआ है जो दागने के लिए तोप में लगाया तो गया था लेकिन रानी ने गोला दागने का आदेश नही दिया था।

किले में अंदर गणेश मंदिर है यूं तो राजा गंगाधर राव और महारानी लक्ष्मीबाई का विवाह किले के बाहर बने गणेश मंदिर में हुआ था लेकिन विवाह के बाद किले में पहली पूजा रानी ने इसी मंदिर में की थी इसीलिए इसे राजा ने अपने विवाहस्थल के रूप में मान्यता दी थी।

किले में इस मंदिर का बहुत महत्व था। रानी रोज यहां पूजा अर्चना के लिए आती थीं। किले के वास्तविक द्वार इसी गणेश मंदिर के नीचे हैं जो लकड़ी के बने हैं और आज भी किले में मौजूद हैं। इन्हीं दरवाजों से रानी का किले मे आना जाना होता था।

किले के मुख्य भाग में कारावास, काल कोठरी, शिव मंदिर, फांसी घर, पंच महल, पाताली कुंआ, गलाम गौस खां, मोती बाई व खुदा बख्श की समाधि स्थल और महारानी का छलांग स्थल महत्वपूर्ण जगह हैं।

रानी लक्ष्मी बाई की कहानी (Rani Laxmi Bai Ki Kahani)

गंगाधर राव बेहद सख्त राजा थे और वह गद्दारों या नाफरमानी करने वालों के प्रति बहुत सख्त रवैया अपनाते थे और कहा जाता है कि छोटी गलती पर भी फांसी की सजा दे देते थे। किले के उत्तर पूर्वी किनारे पर फांसी घर बनाया गया था जहां जल्लाद फांसी देता था और नीचे गिरने वाली लाश को उसके घर वालों को दे दिया जाता था या लावारिस होने पर ओरछा में बेतवा नदी मे फिकवा दिया जाता था।

मात्र 13 साल की उम्र में विवाह के बाद झांसी आई महारानी लक्ष्मीबाई में इतनी ऊंचे दर्जे की प्रशासनिक समझ और मानवीयता थी कि उन्होंने राजा गंगाधर राव से कहकर छोटी सी बात पर ही फांसी देने की इस प्रथा का अंत करवाया।

उन्होंने किले में एक कारावास और काल कोठरी बनवाई और राजा को समझाया कि जो कर्मचारी नाफरमानी करें उन्हें पहले कारावास में रखा जाए और इतना कम खाने को दिया जाएं कि वह सही रास्ते पर आ जाएं।

गद्दारों से निपटने के लिए बनाई गई काल कोठरी ऐसी जगह है जहां जाने वाला हर कैदी हर पल अपनी मौत की दुआ मांगता था। इस बड़ी सी काल कोठरी में न तो कोई खिड़की है और न ही कोई रोशनदान। यहां बस नाममात्र के लिए बेहद छोटे रोशनदान है इस कारण इस कोठरी में सीलन और अंधेरा रहता है। इसी कारण यहां रखा जाने वाला हर कैदी हर पल अपनी मौत की दुआ मांगता था।

किले के मुख्य भाग में बना पंचमहल बेहद खूबसूरत इमारत है जो पांच मंजिला थी। इस पंचमहल में राजा और रानी रहते थे। इसकी सबसे ऊपरी मंजिल में बनी रसोई में राजा और रानी के लिए खाना बनाया जाता था। सबसे ऊपरी मंजिल को बाद में अंग्रेजों ने तुड़वा दिया और सपाट कर दिया।

उसके नीचे की मंजिल वर्तमान में बंद है बीच की मंजिल में रानी दोपहर में अपनी सहेलियों के साथ झूला झूलती थीं। यहां चंदन की लकड़ी का झूला टंगा था,रानी अपनी सहेलियों के साथ फुर्सत के पल बिताती थीं। इससे नीचे की मंजिल में रानी व्यायाम किया करती थीं।

बारादरी, किले में एक ऐसी जगह जो राजा रानी के मनोरंजन के लिए इस्तेमाल होती थी। यहां गजराबाई का नृत्य उनके मनोरंजन के लिए होता था। इसी जगह पर सुरक्षा की दृष्टि से भवानी शंकर तोप रखी गई थी जिसे महिला तोपची मोतीबाई चलाती थीं।

किले में 1602 में बनाया गया एक पाताली कुंआ है। किले के निर्माण के दौरान सबसे पहले कुंआ और मंदिर ही बनाया गया था बाद में किले के बनने में इस्तेमाल हुआ पानी इसी कुंए से लिया गया। यह कुंआ आज भी किले में है जिसका पानी कभी नहीं सूखता। आज भी इस कुंए के पानी का इस्तेमाल साफ सफाई और हरियाली को बनाए रखने में किया जाता है।

किले मे मौजूद महत्वपूर्ण स्थानों मे सबसे महत्वपूर्ण है ‘रानी लक्ष्मीबाई का छलांग स्थल’। यह वह जगह है जहां से महारानी ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ में बांधकर घोड़े पर सवार होकर किले से बाहर छलांग लगाई थी। जब रानी के देवर दूल्हाजी राव ने उनके साथ धोखा कर ओरछा गेट खोल दिया और अंग्रेजों को किले के अंदर प्रवेश करा दिया।

रानी और अंग्रेजों के बीच जबरदस्त लड़ाई हुई। मुंह में घोड़े की लगाम लिए, पीछे बेटे को बांधे और दोनों हाथों से तलवार चलाती रानी को युद्ध के बीच में किसी ने पीछे से बरछी मार दी, जिसमें रानी बुरी तरह घायल हो गई। रानी का बहुत खून बहने पर उनकी वफादार झलकारी बाई ने उनसे किला छोडकर जाने को कहा। झलकारी बाई की शक्ल लक्ष्मीबाई से बहुत ज्यादा मिलती थी। झलकारी बाई की बात मानकर रानी ने किले की दीवार से घोड़े पर बैठकर छलांग लगाई।

किले के बाहर स्थित भी कुछ इमारतें हैं जो रानी से संबंधित हैं। इसी ही एक इमारत है रानी महल। राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद रानी महिला सेना के साथ रहने के लिए रानी महल में रहने चलीं गईं थी। इसके अलावा लक्ष्मी तालाब के पास गंगाधर राव की समाधि है और काली जी का बड़ा मंदिर है। रानी रोज काली जी की पूजा करने आतीं थीं।

झांसी में कोई ऐसी जगह नहीं है जो महारानी लक्ष्मीबाई के प्रभाव से अछूती रही है। वीरता और पराक्रम की प्रतिमूर्ति रानी का प्रभाव भी किले में मौजूद हर स्थान पर साफ देखा जा सकता है।

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