पोंगल के बारे में पूरी जानकारी – Pongal in Hindi

पोंगल हिंदु धर्म के प्रमुख पर्वों में से एक है, इस पर्व को खासतौर से तमिल हिंदुओं द्वारा काफी उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह पर्व पारम्परिक रुप से 1000 वर्ष से अधिक समय से मनाया जा रहा है।

यह त्योहार प्रतिवर्ष 14 या 15 पंद्रह जनवरी से शुरु होता है और चार दिनों तक चलता है, मुख्यतः यह पर्व फसल कटाई के उत्सव में मनाया जाता है। इस त्योहार को समपन्नता का प्रतीक माना जाता है और इसके अंतर्गत समृद्ध प्राप्ति के लिए धूप, वर्षा और मवेशियों की आराधना की जाती है। इस पर्व को विदेशों में रहने वाले प्रवासी तमिलों द्वारा भी काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।

पोंगल के बारे में पूरी जानकारी – Pongal in Hindi

पोंगल का त्योहार मुख्यतः तमिलनाडु तथा पांडिचेरी जैसे राज्यों में मानाया जाता है, हालांकि देश भर के विभिन्न राज्यों में रहने वाले तमिलों तथा प्रवासी तमिलों द्वारा भी इस त्योहार को काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।

पोंगल का पर्व थाई महीने के पहले दिन मनाया जाता है, यह महीना तमिल महीने का प्रथम दिन होता है। इस महीने के विषय में एक काफी प्रसिद्ध कहावत है भी है “थाई पोरंदा वाज़ी पोरकुकुम”, जिसका मतलब है थाई का यह महीना जीवन में एक नया परिवर्तन पैदा करता है। पोंगल का यह पर्व चार दिनों तक मनाया जाता है। यदि इस पर्व को समान्य रुप से देखा जाये, तो यह सर्दियों के फसलों के लिए, ईश्वर को दिये जाने वाले धन्यवाद के रुप में मनाया जाता है।

चार दिनों तक मनाये जाने वाले इस पर्व में प्रकृति को विशेष धन्यवाद दिया जाता है। इसके साथ ही पोंगल के पर्व पर सूर्य देव को जो प्रसाद चढ़ाया जाता है उसे भी पोंगल व्यंजन के नाम से जाना जाता है और इसके साथ ही पोंगल का एक दूसरा अर्थ ‘अच्छी तरह से उबालना’ भी है, यहीं कारण हैं कि इस व्यंजन को सूर्य के प्रकाश में आग पर अच्छे तरह से उबालकर बनाया जाता है।

पोंगल कैसे मनाते हैं? (पोंगल के परंपरा और रिवाज)

पोंगल का यह विशेष त्योहार चार दिनों तक चलता है। जिसमें प्रकृति तथा विभिन्न देवी-देवताओं को अच्छी फसल तथा समपन्नता के लिए धन्यवाद दिया जाता है। पोंगल के यह चारो दिन एक-दूसरे से भिन्न हैं और इन चारों का अपना-अपना अलग महत्व है।

पोंगल के प्रथम दिन को भोगी पोंगल के रुप में मनाया जाता है। इस दिन इंद्रदेव की पूजी की जाती है, वर्षा और अच्छी फसल के लिए लोग पोंगल के पहले दिन इंद्रदेव की पूजा करते हैं।

पोंगल का दूसरे दिन को सूर्य पोंगल के नाम से जाना जाता है। इस दिन नए बर्तनों में नए चावल, गुड़ व मुंग की दाल डालकर उसे केले के पत्ते पर रखकर गन्ना तथा अदरक आदि के साथ पूजा करते है और इसकी सहायता से एक विशेष व्यंजन बनाकर सूर्यदेव को उसका भोग लगाते हैं, इस विशे प्रसाद को भी ‘पोंगल’ के नाम से ही जाना जाता है। सूर्य देव को चढ़ाए जाने वाले इस प्रसाद को सूर्य के ही प्रकाश में बनाया जाता है।

पोंगल के तीसरे दिन को मट्टू पोंगल के नाम से जाना जाता है। इस दिन बैल की पूजा की जाती है। इस विषय को लेकर एक कथा प्रचलित है, जिसके अनुसार शिव जी प्रमुख गणों में से एक नंदी से कुछ गलती हो गयी, इसके दंड में शिवजी ने उसे बैल बनकर पृथ्वी पर मनुष्यों की खेती करने में सहायता करने को कहा। इसलिए इस दिन मवेशियों की पूजा की जाती है और मनुष्यों के सहायता के लिए उनका धन्यवाद किया जाता है।

पोंगल के चौथे दिन को कन्या पोंगल या कन्नम पोंगल के नाम से जाना जाता है। जिसे महिलाओं द्वारा काफी धूम-धाम से मानाया जाता है। इस दिन लोग मंदिरों, पर्यटन स्थलों या फिर अपने दोस्तों तथा रिश्तेदारों से भी मिलने जाते हैं।

पोंगल कैसे बनाते है? (मीठा पोंगल व्यंजन बनाने की विधि)
पोंगल के त्योहार पर चावल का एक विशेष व्यंजय बनाते हैं, जिसे पोंगल व्यंजन के नाम से जाना जाता है। यह व्यंजन कई प्रकार का होता है जैसे मीठा पोंगल, नमकीन पोंगल आदि। इसी विषय पर आज हम आपको बता रहें है कि मीठा पोंगल कैसे बनाते हैं। इसके लिए आपको निम्नलिखित सामग्रियों की आवश्यकता होती है।

मीठा पोंगल बनाने के लिए आवश्यक सामग्री

  • 250 ग्राम चावल
  • 100 ग्राम मूंग की दाल (छिलके सहित)
  • 8-10 काजू
  • 8-10 किशमिश
  • थोड़ी सी दालचीनी
  • 3-4 लौंग
  • गुढ़ स्वादनुसार तथा 2 चम्मच घी

पोंगल बनाने की विधि

आपके इस विषय की सबसे महत्वपूर्ण बात बता दें कि पारम्परिक रुप से पोंगल सूर्य के प्रकाश में बनाया जाता है। मीठा पोंगल बनाने के लिए सबसे पहले चावल को धोकर कुछ देर भीगो को रख देना चाहिए तथा इसके साथ ही दाल को भी धोकर तैयार कर लेना चाहिए। इसके बाद कुकर में घी डालकर गरम करे और जब घी गर्म हो जाये तो उसमें दाल डालकर कुछ देर तक चलाइये। इसके पश्चात थोड़ा सा पानी डालकर दोनों को पका लें।

इसके बाद एक कड़ाही में जरुरत के हिसाब से थोड़ा सा गुढ़ ले ले और उसमें आधा गिलास पानी डालकर उसे कुछ देर तक चलाएं और इसके बाद पहले से पक रहे चावल तथा दाल को इसमें डालकर अच्छे से मिलाएं। जब यह अच्छी तरह से पककर तैयार हो जाये तो इसमें काजू-किशमिश, लौंग और इलायची आदि मिलाकर कुछ देर के लिए और पकाएं, इसके बाद आपका यह मीठा पोंगल बनकर तैयार हो जायेगा।

पोंगल का महत्व

पोंगल का त्योहार मनाने के कई सारे महत्वपूर्ण का कारण है। पोंगल का यह पर्व इसलिए मनाया जाता है क्योंकि यह वह समय होता है जब शीत ऋतु के फसल की कटाई की जाती है और इसी के खुशी में किसान अपने अच्छी फसल के प्राप्ति के लिए पोंगल के इस त्योहार द्वारा ईश्वर को धन्यवाद देता। इसके साथ ही चार दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में सूर्य की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है क्योंकि सूर्य को अन्न तथा जीवनदाता माना जाता है। इसलिए पोंगल के दूसरे दिन पोंगल नाम के एक विशेष व्यंजन को सूर्य के रोशनी में बनाते हुए सूर्यदेव को इसका भोग लगाया जाता है।

पोंगल मनाने का इतिहास

इससे जुड़ी तमाम तरह की पौराणिक मान्यताएं भी है। ऐसी मान्यता है कि, एक बार मैदूर में कोवलन नाम का रहने वाला व्यक्ति अपनी पत्नी कण्णगी के कहने पर उसके पायलों को बेचने सुनार के पास गया। सुनार ने शंका के आधार पर राजा को बताया कि कोवलन जो पायल बेचने आया है वह रानी के चोरी हुए पायल से काफी मिलता-जुलता है। इस बात पर राजा ने बिना किसी जांच के ही कोवलन को फांसी की सजा दे दी। अपनी पति की मृत्यु से क्रोधित होकर कग्गणी ने भगवान शिव का घोर तप किया और उनसे दोषी राजा और उसके राज्य को नष्ट करने का वरदान मांगा।

जब राज्य की जनता को घटना के बारे में पता चला तो राज्य की सभी महिलाओं ने मिलकर किलिल्यार नदी के किनारे माँ काली की आराधना की और उनके प्रसन्न होने पर उनसे अपने राज्य तथा राजा की रक्षा हेतु कग्गणी के अंदर दया भाव जगाने की प्रर्थना की। महिलाओं के आराधना से प्रसन्न होकर माँ काली ने कण्णगी में दया भाव जागृति किया और उस राज्य के राजा तथा प्रजा की रक्षा की। तभी से पोंगल के आखिरी दिन को कन्या पोंगल या कन्नम पोंगल के रुप में मनाकार काली मंदिर में काफी धूम-धाम के साथ पूजा की जाती है।

इसके साथ ही शिलालेखों से इस बात का पता चलता है कि प्राचीनकाल में इस पर्व को द्रविण शस्य (नई फसल) उत्सव के रुप में भी मनाया जाता था। तिरुवल्लुर मंदिर के शिलालेख से इस बात का पता चलता है कि इस दिन किलूटूंगा राजा द्वारा इस दिन गरीबों को कई प्रकार के दान दिये जाते थे। इसके साथ इस विशेष पर्व पर नृत्य समारोह तथा सांड के साथ खतरनाक युद्धों का आयोजन किया जाता था और इस युद्ध में जीतने वाले सबसे शक्तिशाली पुरुषों को कन्याओं द्वारा वरमाला पहनाकर अपने पति के रुप में चुना जाता था।

समय बीतने के साथ-साथ इस पर्व में भी परिवर्तन हुआ और आगे चलकर यह पर्व वर्तमान समय में मनाये जाने वाले पोंगल के रुप में प्रसिद्ध हुआ। यहीं कारण है यह त्योहार नई फसल के उत्सव के साथ ही कई तरह की पौराणिक कथाओं तथा किवदंतियों से भी जुड़ा हुआ है।