हिंदू संस्कृति में पितृ पक्ष का एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व पित्तरों यानि मृत पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए मनाया जाता है। यह भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक मनाया जाता है। पितृ पक्ष लोगो द्वारा अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मनाया जाता है।
पितृ पक्ष के पर्व में लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध करने के लिए कई सारे प्रमुख स्थलों पर जाते है। इसके दौरान लोग अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए श्रद्धाभाव से सभी धार्मिक रीती रिवाजों का पालन करते है। ऐसा माना जाता है कि पितृ पक्ष के दौरान पितरों की पूजा पाठ और श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है।
पितृ पक्ष के बारे में पूरी जानकारी – Pitru Paksha in Hindi
पितृ पक्ष या जिसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है, उसका हिंदू धर्म में बहुत ही बड़ा महत्व है। भाद्र माह में 15 दिनों तक मनाये जाने वाला यह पर्व हमारे देश में प्राचीन समय से ही मनाया जा रहा है क्योंकि सनातन धर्म में पूर्वजों को देवताओं के बराबर का सम्मान दिया जाता है।
जिस प्रकार से ईश्वर हमारी रक्षा और संकटों में सहायता करते है, वैसे ही हमारे पूर्वजों द्वारा हमारा पालन-पोषण किया जाता है, इसलिए हम अपने इस जीवन के लिए सदैव उनके ऋणी है और मान्यताओं के अनुसार जो भी व्यक्ति समर्पण तथा कृतज्ञता भावना से पितृ पक्ष में धार्मिक रीति रिवाजों का पालन करता है, उसके पितर उसे मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं।
हिंदू धर्म के मान्यताओं के अनुसार प्रत्येर मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते है-
- पितृ ऋण
- देव ऋण
- ऋषि ऋण
इन तीनों ऋणों में सबसे बड़ा पितृ ऋण ही होता है, हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में किए गए कार्यों द्वारा हमारे पूर्वजों की आत्मा को शांति प्राप्त होती है तथा इसे करने वाले को पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। क्योंकि इस बात उल्लेख गीता में भी है कि आत्मा जब तक अपने परम-आत्मा से संयोग नही कर लेती, तब तक वह विभिन्न योनियों में भटकती रहती है और इस दौरान उसे सिर्फ श्राद्ध कर्म द्वारा ही संतुष्टि मिलती है। यहीं कारण है कि लोग अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिये पितृ विसर्जन मनाते है।
पितृ पक्ष कैसे मनाते है?
पितृ पक्ष के दौरान कई सारे विशेष नियमों का पालन किया जाता है। इसके साथ ही इस अवधि में कई प्रकार के विशेष पूजा-पाठ भी आयोजित किये जाते है। कई सारे लोगो द्वारा पितृ पक्ष के नियमों का बहुत ही कठोरता से पालन किया जाता है और जबतक पितृ पक्ष चलता है उनके द्वारा मांस-मदिरा तथा अन्य तामसी भोजन ग्रहण नही किया जाता है। पितृ पक्ष के आखिरी दिन यानी पितृ विसर्जन के दिन लोगो द्वारा अपने पुरखो का श्राद्ध कर्म किया जाता है और यही पूरे पृत पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण दिन होता है।
पितृ पक्ष में व्यसन और माँसाहार को पूरी तरह से वर्जित माना गया है। इस दौरान व्यक्ति को पूर्णतः पवित्र रहकर श्राद्ध करना होता है। श्राद्ध का कार्य रात्रि में नही किया जा सकता है, इसके लिए दोपहर का बारह से एक बजे तक का समय सबसे उपयुक्त माना गया है। पितृ विसर्जन के दिन किये जाने वाले इस श्राद्ध में ऐसी मान्यता है कि गाय, कुत्ता, कौवा चींटी और देवताओं को पितृपक्ष में भोजन कराना चाहिए।
इसलिए श्राद्ध करते वक्त पितरों को अर्पित करने के लिए भोजन के पाच अंश निकाले जाते है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि कुत्ता जल का, चींटी अग्नि का, कौवा वायु का, गाय पृथ्वी का और देवता आकाश का प्रतीक है, इस प्रकार से हम इन पाचों को आहार देकर हम पंच तत्वों के प्रति अपना आभार व्यक्ति करते है। इन पांच अंशो को अर्पण करने के कार्य को पञ्च बलि कहा जाता है।
पितृ पक्ष की आधुनिक परंपरा (Modern Tradition of Pitra Paksha)
पहले के अपेक्षा में आज के समय में पितृ पक्ष मनाने के तरीकों में काफी परिवर्तन आ गया है। पहले के समय में लोग इस पर्व काफी श्रद्धापूर्वक मनाया जाता था। इस दौरान पूरे पितृ पक्ष तक लोगो द्वारा मांस-मदिरा और तामसी चीजों का सेवन नही किया जाता था लेकिन आज के समय में ज्यादेतर लोग इन मान्यताओं में विश्वास नही रखते।
पितृ पक्ष के दौरान वाराणसी, गया, बद्रीनाथ, नासिक और रामेश्वरम जैसे प्रमुख तीर्थ स्थलों पर भारी संख्या में श्रद्धालु इकठ्ठा होते है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इन जगहों पर पितृ विसर्जन करने से विशेष फल प्राप्त होते है, खासतौर से गया में पितृ विसर्जन के लिए लाखों की तादाद में श्रद्धालु आते है।
पहले के समय लोगो द्वारा पितृ विसर्जन के दौरान नदियों की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता था। इसके साथ ही पहले के समय में आज के अपेक्षा आबादी भी काफी कम थी। जिससे इन तीर्थ स्थलों पर इतनी भीड़ नही हुआ करती थी, लेकिन आज के समय में यह हालात बिल्कुल विपरीत हो चुके है आज के समय में लोग पितृ विसर्जन की पूजा-पाठ करने के पश्चात कई प्रकार के कूड़े कचड़ों तथा वस्तुओं को नदियों किनारे ही छोड़ कर चले जाते है। यदि हम इन चीजों को सुधार ले तो पितृ पक्ष के इस त्योहार को और भी अच्छा बना सकते है।
पितृ पक्ष का महत्व (Significance of Pitra Paksha)
हिंदू धर्म में पितृ पक्ष को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। पुराणों के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले हमें पितरों को प्रसन्न करना चाहिये क्योंकि यदि हमारे पितर प्रसन्न नही रहेंगे, तो हमें देवताओं की कृपा नही प्राप्त होगी। यहीं कारण है कि प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से अश्विन कृष्ण अमवस्या तक पितृ पक्ष श्राद्ध किया जाता है।
वास्तव में पितृ पक्ष हम अपने स्वर्गवासी पूर्वजों का विशेष सम्मान में मनाते है और इस बात को श्राद्ध के दौरान उच्चारित किया जाने वाला नीचे दिया गया यह श्लोक प्रमाणित भी करता है।
।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः। ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
इस श्लोक का मतलब है कि “सभी पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देवता हैं। अर्यमा को मेरा प्रणाम। हे! पिता, पितामह और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।”
यह पर्व हमें इस बात का अहसास कराता है कि हमारा जीवन हमें हमारे पूर्वजों द्वारा दिया गया है और यह हमारा कर्तव्य है कि हम उनकी आत्मा की शांति के लिए अपने धर्म अनुसार श्राद्ध कर्म के रीति रिवाजों का पालन करें।
पितृ पक्ष का इतिहास (History of Pitra Paksha)
पितृ पक्ष पर्व का इतिहास काफी प्राचीन है और इसकी उत्पत्ति को लेकर कई सारी पौराणिक और ऐताहासिक कहानियां प्रचलित है। पितृ पक्ष की पौराणिक कथा के अनुसार जोगे तथा भोगे दो भाई थे। दोनो अलग-अलग घरों में रहा करते थे, एक तरफ जोगे काफी धनी था वही भोगे निर्धन था लेकिन दोनो भाईयों में काफी प्रेम था। जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था, किंतु भोगे की पत्नी बड़ी सरल हृदय थी।
पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे इसे व्यर्थ का कार्य समझकर टालने की चेष्टा करने लगा, किंतु उसकी पत्नी समझती थी कि यदि ऐसा नहीं करेंगे तो लोग बातें बनाएंगे। फिर उसे अपने मायके वालों को दावत पर बुलाने और अपनी शान दिखाने का यह उचित अवसर लगा।
इस बात पर वह बोली कि आप मेरी परेशानी की वजह से ऐसा कह रहे हैं, किंतु इसमें मुझे कोई परेशानी नही होगी। मैं भोगे की पत्नी को बुला लूंगी और हम दोनो मिलकर सारा काम कर लेगे। इसके बाद उसने जोगे को अपने ससुराल मायके न्योता देने भेज दिया।
दूसरे दिन उसके बुलाने पर भोगे की पत्नी सुबह आकर काम जुट गई सारा काम निपटाकर वह अपने घर आई क्योंकि उसे भी अपने घर में पितरों का तर्पण करना था। इस प्रकार से दोपहर का समय हो गया और जब पितर धरती पर उतरे तो उन्होंने देखा कि जोगे के यहां उसके ससुराल वाले भोजन में जुटे है।
जब वह जोगे के यहा गये पर उसके पास कुछ ना था इसलिए उसकी पत्नी ने पितरो के नाम पर अगियारी जला दी थी। पितरों ने अगियारी की राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे। इस पर जोगे-भोगे के पितरों ने सोचा कि यदि भोगे धनवान होता तो उन्हें भूखा नही रहना पड़ता। यह सब सोचकर सभी पितरों ने भोगे को आशीर्वाद दिया की वह धनी हो जाये और उसकी दरिद्रता दूर हो जाये।
पितरों की कृपा से भोगे का घर सोने-चांदी से भर गया लेकिन भोगे को धन पाकर किसी प्रकार का भी घंमड नही हुआ। इसके बाद अगले श्राद्ध के दिन भोगे की पत्नी ने छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाए ब्राम्हणों को बुलाकर श्राद्ध करवाया तथा उन्हें भोजन कराकर दक्षिणा दी। भोगे और उसके पत्नी के इस कार्य से उसके पितर बहुत ही प्रसन्न और तृप्त हो गये।
पितृ पक्ष को लेकर इतिहासकारों का मानना है कि पितृ पक्ष तथा श्राद्ध का यह अनुष्ठान वैदिक काल ले चला आ रहा है। प्राचीन समय में लोग इस पर्व को अपने पितरों के आत्मा के शांति के लिए मनाते आ रहे है क्योंकि उनका मानना है कि बिना पितरों को तृप्त किये व्यक्ति को अपने जीवन में सफलता और देवताओं की कृपा नही मिल सकती है।