राजा राम मोहन राय पर निबंध – Essay On Raja Ram Mohan Roy in Hindi

श्री रविन्द्र नाथ टैगोर जी ने ठीक ही कहा है- “राजाराममोहन राय इस शताब्दी के महान् पथ निर्माता हैं । उन्होंने भारी बाधाओं को हटाया है, जो हमारी प्रगति को रोकती हैं ।”

राजा राम मोहन राय पर निबंध – Long and Short Essay On Raja Ram Mohan Roy in Hindi

राजा राममोहन रॉय का जन्म २२ मई सन १७७२ में बंगाल राज्य के राधानगर जिले में हुआ था। वे भारतवर्ष में एक नये युग के निर्माता माने जाते है क्योंकि उन्होंने पिछड़े हुए भारत को आधुनिक विचारों की ओर मोड़ा। उन्होंने पूरब और पश्चिम की विचारधारा का संगम करवाया जिससे भारतवर्ष में नई सोच की स्थापना हुई। उन्होंने लोगों के मन में और जीवन में ऐसे विचार लागू किये जो भारत के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। उन्हें भारतवर्ष के पुनर्जागरण और सुधार के लिए जाना जाता है।

राजा राम मोहन रॉय के पिता का नाम रमाकांत तथा माता का नाम तारिणी देवी था। उनके तीन विवाह हुए थे क्योंकि उनकी पहली पत्नियों का जल्द ही स्वर्गवास हो गया था। रॉय जी  भारतीय भाषायी प्रेस को शुरू करवाने वाले व्यक्ति तथा ब्रह्म समाज के संस्थापक थे और वे सामाजिक सुधार आंदोलन के भी मुख्य पात्र रहे है। उन्होंने वेदांत सूत्र उपनिषद को बंगला में अनुवाद किया था।

वे ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम तथा पत्रकारिता के संयोग से दोनो ही क्षेत्रों में सफलता हासिल की। जब वे १६ साल के थे तब उन्होंने अंधविश्वासों पर एक  निबंध लिखा था, उसके पश्चात सन १८२३ में उन्होंने हिन्दू नारी के अधिकारों पर भी एक पुस्तक लिखी थी जिसमे नारियों को उनके पति के संपत्ति में अधिकार मिलना चाहये इसका वर्णन किया गया था।

तत्पश्चात सन १८२७ में वजसूची नामक पुस्तक भी लिखी जो  वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध थी, इन सब से उनके चरित्र के बारे में यह पता चलता है की वे रूढ़िवाद और कुरीतियों के सेहत खिलाफ थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई के साथ साथ कई अन्य भाषाएँ भी सीखी जैसे  ग्रीक, हिब्रू, अंग्रेजी, बंगला, संस्कृत, अरबी, फारसी व गुरुमुखी इत्यादि।

इतना ही नही राजा राममोहन रॉय जी हिंदी भाषा से भी बहुत प्यार करते थे और हिंदी के समर्थक थे इसलिए उन्होंने हिन्दू कॉलेज की स्थापना की जिसमें उनकी सहायता सर एडवर्ड व डेविड हाल तथा हरिहरानन्द जी ने की थी। उन्होंने सन १८१६ के समय एक अंग्रेजी स्कूल की भी स्थापना करवाई थी। इसके पहले सन १८०९ में वे कलेक्टर के दीवान बने और सन १८१२ में उन्होंने सती प्रथा जैसी कुरीति को समाप्त करने का निर्णय लिया।

एक बार राजा राममोहन रॉय जी के इन्ही धार्मिक विचारों से डर कर मद्रास के एक मशहूर कॉलेज के प्रधानाध्यापक शंकर शाश्त्री जी ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी थी, जिसमे राजा राममोहन रॉय जी ने अपने विचारों को अलग अलग भाषाओं में सबके समक्ष रखा जैसे हिंदी, अंग्रेज़ी, बंगला,संस्कृत इत्यादि। इस शास्त्रार्थ में रॉय जी की जीत हुई। वे शस्त्रों के ज्ञाता थे,

यहाँ तक की ईसाई धर्म पर जब आलोचना करनी थी तब उन्होंने बाइबल का अध्ययन कर लिया था जिसके लिये उन्हें  यूनानी, हिब्रू, लेटिन जैसी भाषाएं भी सीखनी पड़ी। उन्होंने बाइबल में लिखे हुए तथ्यों को अस्वीकार किया था, जिसके लिए उन्हें अपमान का पात्र भी बनना पड़ा, किन्तु तब भी वे अपने पथ पर अडिग रहे। राममोहन रॉय जी के विचारों से पादरी विलियम प्रभावित थे, जिसकी वजह से ही उन्होंने सती प्रथा को बंद करवाया, तब जाकर सालों से चली आ रही यह प्रथा सन १८२९ में बंद हुई।

हालाँकि इस प्रथा को बंद करने में इन दोनों व्यक्तियों को अनेक कष्ट सहने पड़े। राजा जी एक समाज सुधारक थे इसलिए वे हिन्दू धर्म मे हो रहे धार्मिक कुरूतियों के खिलाफ थे जैसे मूर्ति पूजा, सती प्रथा, बहुविवाह, बालविवाह, जातिप्रथा इत्यादि। उन्होंने कई समाज सुधरक कार्य भी किये जैसे कृषि सुधार, ज़मींदारों से लगान कम करवाना, विचार समंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इत्यादि।

राजा राम मोहन रॉय जी को एक सच्चा समाज सुधरक तथा भारत वर्ष का जनक इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने सदैव भारतवर्ष को आगे बढ़ाने में तथा जाती-उत्थान के लिए कई बड़े और महान कार्य किये है जिसके लिए उन्हें स्वयं ना जाने कितनी बार अपमान का पात्र बनना पड़ा। उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष को मानवता का पाठ पढ़ाया है जिसके लिए भारतवर्ष उनको सदा स्मृति में रखेगा तथा उनका सदा आभारी रहेगा।