हजारीप्रसाद द्विवेदी पर निबंध – Essay On Hazari Prasad Dwivedi in Hindi

हिंदी साहित्य जगत महान साहित्यकारों,उपन्यासकारों और लेखकों से भरा हुआ है। इन सभी ने इस भाषा के अस्तित्व को बनाये रखने में अपना विशेष योगदान दिया है। हिंदी का आज जो महत्व है और जो गरिमा उसे प्राप्त हुई है उसका मुख्य कारण ये महान साहित्यकार ही है। हिंदी साहित्य का अकाशभूत सारे सितारों से निरंतर जगमत्ता रहता है और उनमें से एक है आचार्य हज़ारीप्रसाद द्ववेदी।

हजारीप्रसाद द्विवेदी पर निबंध – Long and Short Essay On Hazari Prasad Dwivedi in Hindi

आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी का जन्म १९ अगस्त १९०७ को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के छपरा परिवार में हुआ था। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।इनके पिता का नाम पंडित अनमोल दुबे था,उनके पिता संस्कृत और ज्योतिष के बहुत बड़े विद्वान थे।इन्होंने अपनी शुरुवाती दौर की शिक्षा संस्कृत में ग्रहण की और उसके पश्चात वे इंटरमीडिएट की शिक्षा के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय गए,वहां उन्होंने ज्योतिषी की शिक्षा प्राप्त की।

इसके बाद उन्हें आचार्य की उपाधि प्राप्त हुई या और वे शांतिनिकेतन में अध्यापन करने चले गए। शांतिनिकेतन में द्विवेदी जी १९४० से १९५० तक रहे और वहां वे बड़े-बड़े हस्तियों के संपर्क में आये जैसे रबिन्द्र नाथ टैगोर,बनारसी दास, विधुशेखर भट्टाचार्य आदि। इन सभी ने इनके साहित्यिक जीवन को काफी प्रभावित किया।

हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी को प्राकृत,पाली,संस्कृत,अपभ्रंश आदि अन्य भाषाओं का भी पूर्ण रूप से ज्ञान था। इसके बाद वे बनाराश हिन्दू विश्वविद्यालय में और पंजाब के विश्व विद्यालय में प्रोफेसर के पद पर प्रतिष्ठित हुए। इन्होंने भारत सरकार की हिंदी संबंधी विविध योजनाओं का दायित्व भी ग्रहण किया।

द्विवेदी के ललित निबंध अविश्मार्निय होते है,अद्भुत होते है। इन्हें आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के बाद दूसरे सबसे बड़े आलोचक माना जाता है। द्विवेदी जी न केवल आलोचक है बल्कि साहित्यकार ,उपन्यासकार और रचनाकार भी है। महान साहित्यकार हरीश नवल और पचौरी जी के अनुसार हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी के कारण ही संत कबीरदास जी की महिमा लोगों के सामने उभर कर आई। उनकी रचनाएँ वर्णात्मक होती थी,चरित्र पर उनकी पकड़ अद्भुत थी।

हिंदी साहित्य के एक अनमोल रत्न हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का हिंदी साहित्य में योगदान का मूल्यांकन करने असमर्थ है। उन्हे सं १९५७ में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। उन्हें उनके निबंध आलोक पर्व के लिए १९७३ में साहित्य अकादमी से भी सम्मानित किया गया। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी को और भी कई पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया जिसके वे पूर्ण रूप से अधिकारी थे।

द्विवेदी जी को लखनऊ विश्वविद्यालय में दी.लिट्.की उपाधि से शुशोभित किया इसके अतिरिक्त इंदौर की साहित्य समिति ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक भी प्राप्त हुआ। नवल जी के अनुसार द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के ईतिहास की रचना अत्यंत नवीन ढंग से की है जो परंपरा और आधुनिकता के परस्पर मेल को दर्शाता है। उनकी वर्णन करने की क्षमता अद्भुत थी। द्विवेदी जी का जीवन हमेशा संघर्ष से भरा रहा परंतु उन्होंने कभी असंतोष या अप्रसन्नता जाहिर नहीं की।

डॉक्टर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी की प्रमुख रचनायें निम्नलिखित है हिंदी साहित्य का आदिकाल,हिंदी साहित्य और हिंदी साहित्य की भूमिका,अशोक के फूल कुटज,विचार प्रवाह,विचार और कल्पलता, कालिदास की लालित्य योजना,सूरदास,कबीर,साहित्य सहचर,साहित्य का मर्म,बाणभट्ट की आत्मकथा,चारुचंद्र लेख और पुनर्नवा।

१९ मई १९७९ को द्विवेदी जी का निधन हो गया। जब उनका निधन हुआ तब वह उत्तर प्रदेश हिंदी अकादमी में बतौर अध्यक्ष कार्यरत थे।वह दिन आज भी इतिहास में काले अक्षरों से लिखा जाता है क्योंकि भारतवर्ष और हिंदी साहित्य दोनो ने ही अपना एक अनमोल रत्न खो दिया था।
डॉक्टर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी एक महान लेखक और साहित्यकार थे।

उन्होंने अपने निबंधों और आलोचनाओं के माध्यम से हिंदी साहित्य में जो स्थान प्राप्त किया है वह किसी भी अन्य साहित्यकार के लिए दुर्लभ है। बहुभाषीय ज्ञान होने की वजह से इन्होंने कई ग्रंथो का अनुवाद भी किया। अपने लेखन द्वारा उन्होंने हिंदी साहित्य को जिस मुकाम पर पहुँचाया है उसके लिए उनका जितना भी आभार किया जाए कम है। जीत उसकी होती है जिसमे शौर्य,धैर्य,साहस,सत्व और धर्म होता है-आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी।